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यादों में अनकही बात


 

डॉ दिलीप अग्निहोत्री
आईपीएन।
आदरणीय लाल जी टण्डन अब हमारे बीच नहीं है। उन्होंने अपनी पुस्तक अनकहा लखनऊ में अनेक तथ्य उजागर किये थे। मिलनसार होना लखनऊ के चिर परिचित मिजाज रहा है। लाल जी टण्डन की जीवन शैली इसी के अनुरूप थी। तरुण अवस्था में वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। यहीं से उनका सामाजिक जीवन शुरू हुआ था। इसके बाद समाज के बीच रहना, हमेशा लोगों से मिलना जुलना,सभी के सुख दुख में सहभागी होना उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया। उन्होंने समाज जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखे,पार्षद से लेकर सांसद,मंत्री, राज्यपाल तक हुए, लेकिन उनके मूल स्वभाव में कभी परिवर्तन नहीं हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी को राजनीति में अजातशत्रु कहा जाता है। लाल जी टण्डन उनके अनुज की तरह थे। अटल जी की तरह उन्हें भी यही पहचान मिली। राजनीति में मतभेद खूब रहा। लेकिन उन्होंने भी अटल जी की तरह मनभेद पर विश्वास नहीं किया। वैचारिक प्रतिबद्धता सदैव रही,कभी उससे विचलित नहीं हुए।
एक बार लखनऊ राजभवन में उनसे मुलाकात हुई। वही उनकी चिरपरिचित सहजता। तब वह चुनावी राजनीति से अलग हो चुके थे। लखनऊ से उन्होंने दुबारा लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था। मैंने आदरणीय टण्डन जी से कहा कि आप इस समय राजभवन में आये है, मेरी अभिलाषा है कि आप राजभवन में रहें। वह मुस्कराये,बोले क्या मतलब। उन्होंने मेरे कथन पर क्या सोचा होगा,मैं नहीं जानता। मैनें कहा कि आप भी राज्यपाल बनें। उन्होंने जो कहा उससे उनके राजनीतिक सिद्धान्त व वैचारिक निष्ठा का अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि राजनीति में पहले दिन से लेकर आज तक मैनें अपने लिए कुछ नहीं मांगा। किसी पद की अभिलाषा नहीं की,अपने बारे में स्वयं कोई निर्णय नहीं लिया। जो पार्टी का आदेश हुआ,उस पर अमल किया। यह सुखद संयोग था कि इसके कुछ समय बाद वह बिहार के राज्यपाल बनाये गए। इसके पहले संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप भाजपा से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद उन्हें मध्यप्रदेश का राज्यपाल नामित किया गया था। दोनों प्रदेशों में उन्होंने संविधान के अनुरूप अपने दायित्वों का निर्वाह किया। वहां के लोगों से संवाद बनाये रखा। सीमित समय में ही बिहार और मध्यप्रदेश  में आमजन के बीच रहने वाले राज्यपाल की उनकी छवि बनी थी। वैचारिक निष्ठा के उनके कथन का एक संस्मरण याद आया। टण्डन जी लखनऊ में पत्रकारों को चाट की दावत पर आमंत्रित करते थे। यह उनका नियम बन गया था। इसमें बड़ी सहजता से वह सभी पत्रकारों से मिलते,बात करते थे। एक बार राजकुमार प्लाजा के सामने स्थित उनके सरकारी आवास पर ऐसी ही चाट पार्टी थी। राजनीति की हल्की फुलकी बात भी चल रही थी। एक प्रश्न के जबाब में टण्डन जी ने आवास के बगल में स्थित ऊंची दीवार की ओर इशारा किया। कहा कि पार्टी आदेश करे तो मैं इस दीवार से भी कूद जाऊ। उनकी बात पर ठहाका लगा। लेकिन यह उनकी वैचारिक निष्ठा को उजागर करने वाला प्रतीक था। जब वह भारतीय जनसंघ के सदस्य बने, तब संघर्ष का दौर था। यह माना जाता था कि कांग्रेस के व्यापक प्रभुत्व को तोड़ा नहीं जा सकता। जनसंघ की स्थापना सत्ता के लिए नहीं हुई है। इसलिए पद नहीं सेवा की प्रेरणा वाले ही इसके सदस्य बनते है। टण्डन जी भी उन्हीं में एक थे। परिवार व व्यवसाय से अधिक ध्यान वह समाज सेवा में लगाते थे। पार्टी के आदेश पर वह पूरी क्षमता से अमल करते थे। बसपा से गठबंधन का निर्णय भी उनका नहीं था। लेकिन जब दायित्व मिला तो वही उसके शिल्पी थे। आदरणीय लाल जी टण्डन के समाज जीव की शुरुआत सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस से हुई थी। उन्नीस सौ साठ में वह सक्रिय राजनीति में आये। दो बार पार्षद और दो बार विधान परिषद सदस्य रहे। तीन बार विधानसभा और एक बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। कल्याण सिंह,बसपा गठबन्धन और राजनाथ सिंह सरकार में वह कैबिनेट मंत्री रहे। इसके अलावा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का दायित्व भी उन्होंने बखूबी निभाया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीति से दूर होने के बाद लखनऊ लोकसभा सीट खाली हुई थी। उनके लखनऊ से उत्तराधिकारी के रूप में पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी बनाया था। वह भारी बहुमत से विजयी हुए थे। वह अटल जी को अपना भाई, पिता, मित्र मानते थे। सादर नमन !

( उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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