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सोशल साइट्स शांतिपूर्ण समाज के लिए एक बड़ा खतरा


 

डॉ. सत्यवान सौरभ
आईपीएन।
फेसबुक, ट्विटर, गूगल और कई अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने हमारे संवाद करने के तरीके में क्रांति ला दी है। ये प्लेटफॉर्म आज ज्यादातर चैट करने के लिए उपयोग किए जाते हैं, यही नहीं ये सार्वजनिक तौर पर बहुत बड़ा प्रभाव डालते है। लेकिन सुरक्षा के उचित नियमों के आभाव में ये अतिसंवेदनशील है। तभी तो लोग इन प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल नफरत फैलाने वाले भाषणों के प्रचार या प्रचार के लिए कर रहें है और आतंकी संगठनों ने तो इसे एक शार्प वेपन की जगह इस्तेमाल कर युवाओं को कट्टरपंथी बनाने, नफरत और हिंसा के संदेश को फ़ैलाने का माध्यम बना लिया है। जो किसी भी देश की आंतरिक सुरक्षा को प्रभावित करता है। तभी तो जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे विभिन्न देशों द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर घृणास्पद भाषण के खतरे से निपटने के लिए हर दिन नए कदम उठा रहें हैं।
फेसबुक, व्हाट्सएप और इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर यह आरोप भी लगा है कि इन प्लेटफॉर्म्स ने म्याँमार के रोहिंग्या मुस्लिमों के विरुद्ध अभद्र व भेदभावपूर्ण लेख, पोस्ट और वीडियो डाले है जिसने लोगों के मन में रोहिंग्या मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा को फैलाने में सहायता की है। संयुक्त राज्य अमेरिका में रंगभेद व ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन के विरुद्ध भी फेसबुक में घृणा व भेदभावपूर्ण लेख डाले गए थे। इस बात पर फेसबुक ने इंटरनेट तटस्थता के सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा है कि वह घृणास्पद या नफरत फैलाने वाले भाषणों के विरुद्ध कार्रवाई करने या उन्हें रोकने के लिये अभी तैयार नहीं है। तभी तो आज 300 से अधिक बहु-राष्ट्रीय कंपनियों ने दुनिया के सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म  फेसबुक पर विज्ञापन देना बंद कर दिया है।
नकली समाचार एक जानबूझकर झूठ या एक आधा सच है जो लोगों के एक वर्ग को गुमराह करने या नुकसान पहुंचाने के इरादे से प्रसारित किया जाता है। यह एक प्रकार की पीत पत्रकारिता है जिसमें पारंपरिक प्रिंट, ब्रॉडकास्टिंग न्यूज मीडिया या इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के माध्यम से जानबूझकर गलत सूचना या झांसा दिया जाता है। घृणा भाषण अपने धार्मिक विश्वास, यौन अभिविन्यास, लिंग, और इसी तरह हाशिए के व्यक्तियों के एक विशेष समूह के खिलाफ घृणा के लिए उकसाना है। भारत में विधि आयोग ने अभद्र भाषा पर अपनी 267 वीं रिपोर्ट में कहा कि इस तरह के बयानों से व्यक्तियों और समाज को आतंकवाद, नरसंहार और जातीय सफाई के लिए उकसाने की क्षमता है।
अभद्र भाषा और फर्जी समाचार दोनों के अतिव्यापी क्षेत्र हैं और समाज के शांतिपूर्ण आदेश के लिए एक बड़ा खतरा हैं। इन सोशल साइट्स पर यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि ऐसी सामग्री कौन पोस्ट कर रहा है। शिक्षा का स्तर कम होने के कारण भारतीय जनता पश्चिम की तुलना में अधिक संवेदनशील है। भारत में आईपीसी के 6-7 प्रावधानों के तहत अभद्र भाषा को कवर किया गया है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि घृणा व भेदभावपूर्ण लेख, पोस्ट और वीडियो आदि को विनियमित करने की दिशा में सरकार को तेज़ी से कार्य करना चाहिये।  सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2015 में आईटी एक्ट की धारा 66 ए को समाप्त कर दिया। केंद्र सरकार ने तब पूर्व कानून सचिव और लोकसभा के महासचिव टी.के. की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया।
समिति ने सुझाव दिया है कि घृणा फैलाने और उत्पीड़न फैलाने के लिए घृणा फैलाने और साइबरस्पेस के उपयोग के मामलों से निपटने के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करने के लिए आईपीसी की कुछ धाराओं, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और आईटी अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए। मगर कानूनी चिंताएँ अक्सर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के भी आड़े आ जाती है, सुगम इंटरनेट सुविधा की उपलब्धता वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरक है। इंटरनेट के उपयोग पर प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ंए) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। और तभी कई मामलों में, वे बोलने की स्वतंत्रता की रक्षा करने और ऑनलाइन सामग्री को बनाए रखने की ओर झुकाव के फलस्वरुप मजबूत निर्णय नहीं आ पाते।
आज इस समस्या से  निपटने के लिए स्पष्टता और तकनीकी उन्नयन की आवश्यकता है, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग को रोकने व उपलब्ध ऑनलाइन कंटेंट की जांच करने के लिये विभिन्न नियमों एवं दिशा-निर्देशों में सामंजस्य स्थापित करना अत्यावश्यक है। भारतीय दंड संहिता, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत प्रासंगिक प्रावधानों का एकीकरण करने की आवश्यकता है। साथ ही इंटरनेट पर वायरल होने वाले घृणा व भेदभावपूर्ण लेख, पोस्ट और वीडियो से निपटने के लिये सूचना प्रौद्योगिकी के लिये दिशा-निर्देश को लागू किया जाना चाहिये।
पुलिस बलों और कानूनी निकायों के बीच समानता और गैर-भेदभाव में प्रशिक्षण के स्तर में सुधार, अनुसंधान में सुधार और ऐसी सामग्री की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित करना भी अत्यंत जरूरी है। सामाजिक नेटवर्क पर जन जागरूकता बढ़ाना भी बेहद अहम है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कानून हो जो किसी विशेष राष्ट्र की सरकार से अनुरोध होने पर 24 घंटे के भीतर स्पष्ट रूप से अवैध सामग्री को हटाकर नफरत फैलाने वाले भाषण से निपटने के लिए जिम्मेदारी लेता हो। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को पारदर्शिता, जवाबदेही और नियमों और दिशानिर्देशों की एक प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदारी लेने की ज़रूरत है, डिजिटल प्लेटफॉर्म पर किसी लेखन सामग्री, वीडियो कंटेंट को डालने के लिये शुल्क निर्धारित किया जा सकता है, ताकि लेखक द्वारा डाले गए कंटेंट पर उसका उत्तरदायित्व तय किया जा सके।
सोशल मीडिया के नकारातमक प्रभाव को सीमित करने के लिए एक बेहतर और अधिक प्रभावी दृष्टिकोण मीडिया साक्षरता को बढ़ाना है। सरकार को इंटरनेट मैसेजिंग प्लेटफ़ॉर्म को पर एक नीतिगत रूपरेखा तैयार करनी चाहिए। नकली समाचारों से वास्तविक समाचारों की पहचान कैसे करें, इस पर नागरिकों को शिक्षित करने के लिए भारत सरकार स्थानीय समाचार समूहों के साथ साझेदारी कर सकती है। और जर्मनी की तर्ज पर अगर मीडिया कंपनियां अपने साइटों से अवैध सामग्री को हटाने में लगातार विफल रहती हैं, तो भारी जुर्माना का जुर्माना लगाया जाता है। सरकार के पास तत्काल समाचार फैलाने में शामिल साइटों/लोगों/एजेंसियों के खिलाफ नोटिस जारी करने का एक तंत्र होना चाहिए। दूसरे, सोशल मीडिया वेबसाइटों को ऐसी गतिविधियों के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए ताकि फर्जी खबरों के प्रसार पर बेहतर नियंत्रण रखना उनकी जिम्मेदारी बन जाए।
सरकार के पास तत्काल समाचार फैलाने में शामिल साइटों/लोगों/एजेंसियों के खिलाफ नोटिस जारी करने का एक तंत्र होना चाहिए। दूसरे, सोशल मीडिया वेबसाइटों को ऐसी गतिविधियों के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए ताकि फर्जी खबरों के प्रसार पर बेहतर नियंत्रण रखना उनकी जिम्मेदारी बन जाए।

( उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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