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नारी सम्मान और धर्मस्थापना के लिए जीवनभर लड़ते रहे श्रीकृष्ण


 

बृजनन्दन राजू
आईपीएन।
लीला पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन युवाओं के लिए आदर्श है। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के कल्याण में लगाया। नारी सम्मान की रक्षा और धर्मस्थापना के लिए वह जीवनभर लड़ते रहे। जिस कृ जिस ने नारी अस्मिता को चोट पहुंचायी उसको यमलोक पहुंचाने का कार्य श्रीकृष्ण ने किया। वह चाहे दुःशासन हो,दुर्योधन हों,नरकासुर हो या स्वयं उनके मामा कंस ही क्यों न हों। कृष्ण की कारागार से मथुरा और फिर द्वारिका जाने तक की यात्रा को देखें तो कठिन से कठिन परिस्थिति में वह विचलित नहीं होते हैं। विकट से विकट समस्याओं का समाधान वह बड़ी आसानी से कर देते हैं। अपनी मधुर मुस्कान से वह सबका मन मोह लेते हैं। उनके जीवन का ध्येय था सत्य की विजय। उस परम सत्य के विजय की प्राप्ति के लिए उन्हें जो कुछ करना पड़ता था वह करते थे चाहे रास्ता नैतिक हो अनैतिक वह यह नहीं देखते थे। इसलिए श्रीकृष्ण की नीतियां अनुकरणीय हैं। वर्तमान समय में श्रीकृष्ण की युक्ति पर चलकर ही सभी समस्याओं से पार पाया जा सकता है।
भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि 12 बजे जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो उस समय मथुरा पर अत्याचारी कंस का शासन था। जो संबंध में श्रीकृष्ण का मामा लगता था। उसने अपने ही पिता उग्रसेन को कारागार में डालकर खुद गद्दी पर बैठ गया था। कंस के अत्याचारों से जनता त्राहिकृत्राहि कर रही थी। उसके विरोध का सामार्थय किसी में नहीं था। ऐसे समय में श्रीकृष्ण का जन्म होता है। कंस श्रीकृष्ण को मारने के लिए तमाम तरह के यत्न प्रयत्न करता है लेकिन वह हर बार असफल होता है। सभी संकटों को मात देकर श्रीकृष्ण धीरेकृधीरे बड़े होते हैं। कंस की हत्या कर श्रीकृष्ण स्वयं सिंहासन पर नहीं बैठते हैं बल्कि उसके पिता उग्रसेन को कारागार से निकालकर उन्हें मथुरा के सिंहासन पर बैठाते हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक पथभ्रष्ट व क्रूर राजाओं को गद्दी से हटाया लेकिन स्वयं राजा नहीं बने। नरकासुर दैत्य का वध करने के बाद श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिषपुर का राजा बनाया था। किशोरावस्था में ही उन्होंने कंस के सारे षड़यंत्रों को विफल कर उसका वध कर दिया। इसके बाद शिक्षा दीक्षा के लिए सांदीपनि के आश्रम उज्जैन गये। वहां उन्होंने अस्त्र शस्त्र के साथ शास्त्रों का भी गहन अध्ययन किया। जैसे रामजी के बारे में तुलसीदास ने लिखा है कि गुरू गृह पढ़न गये रघुराई अल्प काल विद्या सब पायी। उसी तरह मात्र 64 दिनों में 64 प्रकार की विद्या श्रीकृष्ण ने सीख ली। श्रीकृष्ण ने गौपालन के लिए सबको प्रेरित किया। सौन्दर्य च माधुर्य की वह खान हैं। वास्तव में अगर उनके सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि वह सर्वज्ञ हैं। सर्व समर्थ भी हैं। वह सपूर्ण कलाओं के ज्ञाता हैं। इसीलिए उन्हें जगद्गगुरू भी कहा जाता है। इसके बावजूदू उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय बीता। उनके जन्म लेने से पहले काल उनपर मंडरा रहा था। कारागार में जन्म से लेकर बालपन और किशोर अवस्था में आने तक उन्हें मारने के लिए  क्याकृक्या यत्न नहीं किये गये फिर भी वह सभी संकटों को मात देकर आगे बढ़ते रहे। जब वह छोटे थे तो कंस ने उन्हें मारने के लिए पूतना को गोकुल भेजा। यह प्रयास असफल होने पर बकासुर को भेजा। वह भी निष्फल हो गया।
आप देखेंगें तो पायेंगे कि नारी सम्मान के लिए श्रीकृष्ण ने क्याकृक्या नहीं किया। यहां तक कि उन पर तमाम लांछन भी लगाये गये लेकिन कौन क्या कहता है इसकी उन्होंने परवाह नहीं की। समाज में कृष्ण के प्रेम की कई कथाएं भी प्रचलित हैं। जो बहुत ही प्रेरक हैं। बृज की गोपियां उनके विरह में व्याकृल रहती थीं। उनकी वंशी की आवाज सुनकर सब गाय इकट्ठा आ जाती थी। वह सिद्ध योगी थे। वह एक साथ अनेक रूपों में व अनेक स्थानों पर रह सकते थे ऐसी उनको सिद्धि प्राप्त थी। रसखान ने ऐसे ही नहीं लिखा है कि...

सेस महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहिं निरन्तर गावैं
जाहि अनादि, अनन्त अखंड, अछेद, अभेद सुवेद बतावैं
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावैं

वह भाव के भूखे थे। फिर चाहे बृज की गोपिकाएं हों या फिर अन्य कोई। जिस किसी ने उन्हें चाहा तो श्रीकृष्ण ने सबका मान रखा। रूक्मिणी का विवाह शिशुपाल से तय हो चुका था लेकिन रूक्मिणी श्रीकृष्ण को चाहती थी। रूक्मिणी ने श्रीकृष्ण को संदेशा भेजा। संदेश पाते ही श्रीकृष्ण यादवों की सेना लेकर निकल पड़े और रूक्मिणी का हरण किया। महिलाओं की रक्षा करना प्रत्येक पुरूष का कर्तव्य है। यह श्रीकृष्ण हमें सीखने को मिलता है। दुर्योधन की राजसभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय जब सभी मूकदर्शक थे तो श्रीकृष्ण ने द्रोपदी के स्वाभिमान की रक्षा की। इसका बदला लेने के लिए उन्होंने महाभारत रचाया। नरकासुर नाम के राक्षस ने 16 हजार महिलाओं का अपहरण कर लिया था। कृष्ण ने नरकासुर का वध कर उन 16 हजार महिलाओं को मुक्त कराया। उसके बाद प्रश्न खड़ा हुआ कि उनके साथ शादी कौन करे। श्रीकृष्ण ने उन सब को अपनाकर समाज में सम्मानपूर्ण जीने का अधिकार दिलाया। आप जीवन में चाहें जितना उंचे उठ जायें लेकिन अपने मित्रों को नहीं भूलना चाहिए। इसलिए मित्रता में श्रीकृष्ण और सुदामा से बड़ा उदाहरण दूसरा जग में नहीं है।
वात्सत्य सम्राट सूरदास ने उनकी बाल लीलाओं का बहुत ही अदभुत ढ़ंग से वर्णन किया है। श्रीकृष्ण बचपन में दूध दही घी मक्खन का खूब सेवन करते हैं। उन्हें अपने बाल सखाओं के साथ घूमने और खेलने की भी स्वतंत्रता है। गलती करने पर मां यशोदा उन्हें डांटती हैं तो उन्हें पुचकारती भी हैं। आज का बचपन कैसा हो इस पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि आज के बच्चों को कोई स्वतंत्रता नहीं है। चलना बोलना शुरू किया बस प्ले स्कूल में डाल दो। इससे उनके मस्तिष्क का विकास नहीं हो पाता। क्योंकि बच्चा जब स्वस्थ नहीं होगा तो उसके मस्तिष्क का  विकास ठीक से नहीं होगा। इसके साथकृसाथ बच्चों को पौष्टिक भोजन के साथकृसाथ पारिवारिक परिवेश और स्वच्छंदता भी चाहिए। साथ ही कठोर परिश्रम करने की आदत भी चाहिए। आज बच्चे का शारीरिक श्रम और खेल से जो गुणों का विकास होता है वह अवरूद्ध हो गया।
महाभारत के युद्ध में वह स्वयं सारथी की भूमिका में थे। उन्होंने अपनी  भूमिका स्वयं तय की थी। अपने सामार्थय से समूल श्रृष्टि का विनाश कर सकने की क्षमता वाले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को माध्यम बनाया।
अदभुत पराक्रमी श्रीकृष्ण का चरित्र अद्वितीय है। उन्होंने जो किया पूरी उर्जा और पूर्ण मनोयोग से किया। सखा हो तो कृष्ण जैसा,प्रेमी हो तो कृष्ण जैसा,योद्धा हो तो कृष्ण जैसा,भाई हो तो कृष्ण जैसा विद्वान चतुर चालाक और क्षमा एवं धैर्य में तो उनका कोई सानी नहीं है। शिशुपाल को 100 गल्तियों तक माफ करते हैं लेकिन 101 होने पर उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं।
हमेशा धर्म व सत्य की ओर होना चाहिए भले ही वह पक्ष कमजोर क्यों न हो। वह बड़े कूटनीतिज्ञ भी थे। इन्द्र को कर्ण का कवच व कुंडल मांगने भेज दिया,द्रोणाचार्य के पास द्रौपदी को उनकी मृत्यु का रहस्य जानने के लिए भेजा और स्वयं अश्वस्थामा हाथी के मारे जाने पर पांचजन्य शंख द्वारा शंखनाद करना। यह उनकी कुटिलता थी। इसीलिए लोग उन्हें छलिया कहते थे। जब महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया। तो श्रीकृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने अपने बड़े भ्राता बलराम को तीर्थयात्रा के लिए प्रेरित किया कहा कि आप घर के बड़े हैं इसलिए यह पुण्यलाभ आपके लिए ही उचित है। फिर क्या था बलरामजी तीर्थयात्रा पर चले गये और युद्ध में पाण्डव विजयी हुए। क्योंकि बलराम बहुत शक्तिमान थे और दुर्योधन के परम मित्र भी। श्रीकृष्ण जानते थे कि यदि बलराम युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की जीत होगी। इसी तरह घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक को युद्ध से विलग रखा।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में उदघोषणा की है कि

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम धर्मस तदात्मानम सृजान्यहम।।

उन्होंने धर्मस्थापना का अपना अभियान तब तक जारी रखा जब तक पृथ्वी के सभी अत्याचारी राजाओं का विनाश नहीं हो गया। फिर इसके लिए उन्हें चाहे झूठ बोलना पड़ा हो फिर चाहे किसी की हत्या करनी पड़ी हो।
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह ने कहा “एक बात बताओ कन्हैया! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या?“ आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, सब ठीक था क्या? यह सब उचित था क्या?“ श्रीकृष्ण ने कहा कि   पितामह! कुछ बुरा नहीं हुआ, कुछ अनैतिक नहीं हुआ। वही हुआ जो होना चाहिए।“भीष्म ने कहा कि “ यह तुम कह रहे हो केशव? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है? यह क्षल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा। श्रीकृष्ण ने कहा कि पितामह निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। राम त्रेता युग के नायक थे, मेरे भाग में द्वापर आया है। हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह।“ त्रेता और द्वापर की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह! राम के युग में खलनायक भी ’रावण’ जैसा शिवभक्त होता था। तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण और कुम्भकर्ण जैसे सन्त हुआ करते थे। उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था। इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया। किंतु मेरे युग के भाग में कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनी, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं। उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह। वह चाहे जिस विधि से हो।“ श्रीकृष्ण ने कहा कि हमारा लक्ष्य विजय होना चाहिए विजय, केवल विजय। जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है।
कुरूक्षेत्र के मैदान में कौरव और पाण्डवों की सेना के मध्य युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। सब प्रकार के स्वार्थों से ऊपर उठकर दुनिया के हित में कर्तव्य पूरा करना गीता का संदेश है। कर्मणेवाधिकारास्ते मा फलेषु कदाचन। यानि आप कर्म करते रहो फल की चिंता न करो। मान, अपमान, यश या अपयश कुछ भी मिले।

( उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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