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इतिहास मार्गदर्शक होता है और संस्कृति प्रेरक


 

हृदयनारायण दीक्षित
आईपीएन।
इतिहास मार्गदर्शक होता है और संस्कृति प्रेरक। इतिहास की गल्तियां सबक सिखाती हैं। संस्कृति के प्रेरक तत्व उत्सव बनते हैं। 15 अगस्त भारतीय स्वाधीनता का महोत्सव है। स्वाधीनता संग्राम का इतिहास दीर्घकाल तक फैला हुआ है। इस इतिहास का केन्द्रीय तत्व संस्कृति है। 1857 का स्वाधीनता संग्राम दुनिया की पहली राष्ट्रवादी क्रान्ति है। मार्क्सवादी चिन्तक डॉ0 रामविलास शर्मा ने ‘सनसत्तावन की राज्यक्रांति’  (पृष्ठ 531) में इसे संसार की पहली साम्राज्य विरोधी सामंत विरोधी क्रांति बताया और कहा कि यह 20वीं सदी की जनवादी क्रांतियों की लंबी अपूर्ण श्रंखला की पहली महत्वपूर्ण कड़ी भी है।” 1857 भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रभाव का अग्निधर्मा विद्रोह था। भारत ने संस्कृति विरोधी प्रत्येक विदेशी हमले का प्रतिकार किया। ईरानियों, यवनों, शकों, हूणों और अरबों, तुर्को के हमलों का प्रतिकार इतिहास सिद्ध साक्ष्य है। सातवीं सदी में अरब आये। मो0 बिन कासिम ने सिन्ध जीता, बाद में वापिस हो गया। अरबों ने सीरिया, परसिया, अफ्रीका और स्पेन जीता लेकिन पश्चिम में फ्रांस और पूरब में भारत अविजित रहे। लेकिन जाति, पांति ऊंचनीच के कारण यही भारत लम्बे समय तक इस्लामी नियंत्रण में रहा। फिर व्यापार करने आए अंग्रेज देश के सत्ताधीश हो गये। लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की अंर्तधारा शक्ति संचय करती रही। 1857 इसी का विस्फोट था। 
अंग्रेज 1857 के आमने सामने के युद्ध में भी हिन्दू मुस्लिम नहीं बांट पाये। अंग्रेज बंगाल विभाजन की वापसी पर भी विवश हुए। लेकिन 1947 के समझौते में देश बंट गया। सवाल यह है कि जो हिन्दू मुस्लिम 1857 में एक राष्ट्र के रूप में लड़े वही 90 वर्ष के भीतर दो राष्ट्र क्यों हो गये? कांग्रेस ने मजहबी द्विराष्ट्र के सिद्धांत को मानकर देश विभाजन स्वीकारा। पाकिस्तान से भी बड़ी मुस्लिम आबादी भारतीय जनतंत्र में आनंदित है। पाकिस्तान में शेष बचे हिन्दू नाम शेष ही क्यों हैं?
अंग्रेज 1857 की महत्ता जानते थे। 1757 में प्लासी का युद्ध हुआ था। 1769-70 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। राजनी पामदत्त के अनुसार 1 करोड़ मौतें हुईं। 1773 में सन्यासी विद्रोह हुआ। सांस्कृतिक प्रेरणा से आनंदमठ लिखा गया। वन्देमातरम का उद्घोष सांस्कृतिक राष्ट्रभाव की अभिव्यक्ति था। स्वामी दयानंद वैदिक समाज से प्रेरित थे। वासुदेव शर्मा ने ‘अठारह सौ सत्तावन और स्वामी दयानंद’ नाम से लिखी पुस्तक में बताया कि स्वामी जी अंग्रेजी सत्ता का विनाश चाहते थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा सहित अनेक देशभक्तों ने दयानंद से प्रेरणा ली। लाला लाजपत राय ने उन्हें गुरू बताया।  अंग्रेजों ने 1857 को मामूली सिपाही विद्रोह बताया। जान विलियम ने ‘ए हिस्ट्र आफ दि सिपाय वार इन इण्डिया’ लिखकर स्वाधीनता संग्राम को सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष बताया। मार्क्सवादी लेखकों ने भी इसे सिपाहियों की तनख्वाह का संघर्ष बताया लेकिन सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम पर तथ्यपरक किताब लिखी। अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगाया। 
अठारह सौ सत्तावन का आधार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था। यह आरपार की लड़ाई थी। मेरठ (उ0प्र0) में तोपखाना अंग्रेजों के पास था, विद्रोही सैनिक साधनहीन थे। गाय की चर्बी का इस्तेमाल स्वराष्ट्र का अपमान था। अयोध्या क्षेत्र (उ0प्र0) के सिपाहियों ने सीधी चुनौती दी “हम आपकों देश के बाहर खदेड़ रहे हैं।” ‘सिपाय वार’ (खण्ड 3 पृष्ठ 452) के मुताबिक अयोध्या के सांगठनिक कौशल पर हेनरी लारेन्स ने आश्चर्य जताया। बंगाल के सैनिकों ने अंग्रेजी फौज से सीधी टक्कर ली। म्यूटिनी रिकार्डस (खण्ड 2, पृष्ठ 299) के अनुसार जालंधर की सेना ने खजाने पर ही कब्जा कर लिया। अंग्रेजी सत्ता का सिंहासन हिल गया। ईरान, चीन, और वर्मा से अंग्रेजी फौजें वापिस आयीं। कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह, नैपाल के राणा जंग बहादुर पटियाला-पंजाब के राजा और हैदराबाद के निजाम सहित उत्तर भारत के तमाम राजा अंग्रेजों की तरफ गये। बावजूद इसके अनेक राजा भारतीय पक्ष की तरफ से लड़े। उत्तर प्रदेश में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उन्नाव के राणा बेनी माधव अमर हो गये।
राष्ट्र स्वसंस्कृति और स्वराज में रहकर ही अमर होते हैं। अंग्रेज भारतीय संस्कृति के शत्रु, साम्राज्यवादी थे। उन्होंने भारत को गुलाम बनाया। सन्यासी विद्रोही सांस्कृतिक थे, दयानंद वैदिक संस्कृति वाले जाति वर्णहीन समाज के स्वप्नद्रष्टा थे। यहां राष्ट्र आराधन और देशभक्ति की सुदीर्घ परम्परा थी। सिपाही इसी से प्रेरित हुए। वेतन का मुद्दा नहीं था। विद्रोह के समय उन्होंने सारे प्रश्नों को समेटा। उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता की चुनौती का सामना भी किया। 
1857 के संग्राम से भयभीत ब्रिटिश सत्ता ने कठोर फैसले लिए। भारत का सांस्कृतिक मन सुलग रहा था। भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए 1920-30 के बीच के 10 वर्ष महत्वपूर्ण हैं। इस दशक में कांग्रेस मृतप्राय थी। गांधी भी करीब-करीब अलग थे, लेकिन कांग्रेस ने इसी दशक के आखिर (1929) में पूर्ण स्वराज की मांग की। इसकी पृष्ठभूमि में कई कारण थे। 
(1) ब्रिटेन में लेबर पार्टी जीती। भारत के कथित मित्र रेम्जे मेक्डोनाल्ड प्रधानमंत्री बने। वायसराय ने अक्टूबर 1929 में घोषा की कि साइमन रिपोर्ट के बाद सर्वदलीय गोलमेज सम्मेलन होगा। (2) इसी दशक के मध्य (1925) में एक प्रख्यात क्रांतिकारी कांग्रेसी नेता डॉ0 के0बी0 हेडगेवार ने प्रखर हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाया। संघ प्रभाव में सांस्कृतिक तत्वों को बढ़त मिली। (3) क्रांतिकारियों के भी क्रांतिधर्म से भारत आन्दोलित था। (4) कांग्रेस के भीतर विचार के नेताओं/कार्यकर्ताओं का दबाव बढ़ा। (5) किसान मजदूर आन्दोलन बढ़े और (6) इन सबके चलते कांग्रेस से मोहभंग का वातावरण बना। कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट था। उसने दिसम्बर 1929 में पूर्ण स्वराज की मांग की। सिर्फ 25 दिन बाद (26 जनवरी, 1930) को प्रथम स्वतंत्रता दिवस भी मना डाला। सविनय अवज्ञा आन्दोलन चला। गांधी की गिरफ्तारी हुई। 
‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस ने गांधी जी को ही सौंपा था। अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक (मुम्बई 7 अगस्त, 1942) में जवाहर लाल नेहरू ने प्रस्ताव रखा। इसके अगले दिन 8 अगस्त, 1942 को गांधीजी ने सवा घंटे के भाषण में कहा - “आपने अपने सारे अधिकार मुझे सौंप दिए। अब मैं वायसराय से मिलकर कांग्रेस की मांग स्वीकार करने का अनुरोध करूंगा।” 9 अगस्त की सुबह के पहले सारे कांग्रेसी गिरफ्तार कर लिए गए। कांग्रेस बेहद कमजोर थी। इतिहासविद् प्रोफेसर विपिन चन्द्र ने लिखा - “आन्दोलन की बागडोर अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली, डॉ0 लोहिया, सुचेता कृपलानी, बीजू पटनायक और जेल से छूटने के बाद जयप्रकाश पर थी। ..... ये गुप्त समूह मुंबई, पूना, सतारा, बड़ौदा, कर्नाटक, केरल, आंध्र, यू0पी0, बिहार और दिल्ली में सक्रिय थे।” स्वाधीनता संग्राम सांस्कृतिक आधार पर ही लड़ा गया था। लोकमान्य तिलक के अभियान का आधार संस्कृति थी। विपिन चन्द्र पाल सहित अधिकांश वरिष्ठ नेता भारत की संस्कृति के आधार पर संघर्षरत थे। स्वयं गांधी जी ने हिन्द स्वराज में यूरोपीय सभ्यता की कठोर आलोचना की थी। इस स्वाधीनता दिवस पर पूरे राष्ट्रीय आन्दोनल के मूलभूत तत्वों का स्मरण पुरश्चरण जरूरी है। 

( लेखक चर्चित स्तम्भकार एवं उ.प्र. विधानसभा के अध्यक्ष हैं। उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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