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पत्रकारिता पर क्यों उठते सवाल ?


 

प्रभुनाथ शुक्ल 
आईपीएन।
पत्रकारिता के आगे एक हांसिया खड़ा है ? वह हांसिया उसे कटघरे में खड़ा करता है। पत्रकारिता ख़ुद न्याय की मांग कर रहीं है। उसकी आजादी और निष्पक्षता प्रभावित हो रहीं है। वह कराहती, टूटती और बिखरती नज़र आती है। उसकी नैतिकता और निष्पक्षता कायम रहे इसका इलाज वह स्वयं खोजती दिखती है। उसे किस अदालत के सामने दस्तक देनी होगी। उसे कौन न्याय दिलाएगा और वह न्याय क्यों चाहती है ? कौन से ऐसे लोग हैं जो उसका गला दबना चाहते हैं। पत्रकारिता और पत्रकारों पर अँगूली क्यों उठ रहीं है। पत्रकार क्या अपने नैतिक धर्म से विमुख हो गए हैं जैसे तमाम सवाल उसे डराते और कचोटते हैं। 
हिंदी पत्रकारिता बेहद सबल हुई है। उसकी व्यापकता और स्वीकारता बढ़ी है। पत्रकारिता ने जटिल चुनौतियों को पार किया है। वह तकनीकी रूप से बेहद संवृद्ध और आधुनिक हुई है। पत्रकारिता की गतिमानता, व्यापकता बढ़ी है, लेकिन उसका चरित्र और  नैतिकता गिरी है। अब आम के बीच वह खास की बात करती है। वर्चुअल मीडिया ने मूल पत्रकारिता की दुश्वारियां बढ़ा दी है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में आगे निकले की होड़ ने खबरों की गुणवत्ता को निगला है। अब ख़बरें आम की नहीँ खास की होती हैं। उनके मुद्दे और सरोकार खास के हो गए हैं। अब वह विषेश वर्ग के लिए काम करती है। 
आज के दौर में इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रिंट के मुकाबले अधिक प्रभावशाली दिखती है। कोरोना संक्रमण काल ने इस स्थिति को और अधिक बदला है। प्रिंट अब डिजिटल अधिक हो गई है। पूरा का पूरा अखबार पीडीएफ में उपलब्ध है। नंदन और कादम्बिनी जैसी स्तरीय पत्रिकाओं को बंद होना पड़ा है। देश के एक अग्रणी समूह अखबार को टीवी में ख़ुद को पढ़ने के लिए विज्ञापन देना पड़ रहा है। कितनी तेजी से वक्त बदल रहा है जो दूसरों को विज्ञापित करते रहे वह ख़ुद विज्ञापित हो रहे हैं। क्योंकि अब जहाँ अखबार नहीँ पहुँचते हैं वहां टीवी उपलब्ध है। आधुनिक मोबाइल की उपलब्धता ने इसकी पहुँच और आसान बना दिया है। 
हिंदी पत्रकारिता में जनपक्ष गायब है। आम आदमी कहीँ नहीँ दिखता है। उसकी समस्याएं किसी डिबेट का हिस्सा नहीँ बनती हैं। पत्रकारिता में सनसनी परोसने का ट्रेंड चल पड़ा है। मीडिया संस्थान सत्ता की खुशामद ज़रूरत से अधिक करने लगे हैं। जबकि आम आदमी की समस्याएं सिरे से खारिज कर दी गई हैं। टीवी और अखबार में कौन सी ख़बर चलनी और छपनी है उसका एजेंडा तय है। टीवी पत्रकारिता की हालत बुरी है। प्रिंट फ़िर भी विश्वास के करीब है। पत्रकारिता व्यापार हो गई है। मालिक ने करोड़ों खर्च किया है। संस्थान में काम करने वालों को वह तनख्वाह कहां से देगा। फ़िर तो उसे समझौता करना ही  पड़ेगा। फ़िर वह जनपक्ष की बात क्यों करेगा। क्योंकि कोई भी सत्ता और सरकार जनकसौटी पर खरी नहीँ उतर सकती है। 
पत्रकारिता में दाल- भाँत की नहीँ बिरयानी की बात की जाती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया पर जिस तरह अंगुलियाँ उठी हैं वह सवाल खड़े करती है। टीवी चैनलों की आपसी होड़ खुल कर सामने दिखती हैं। पत्रकारों और पत्रकारिता को सोशलमीडिया में किस तरह कटघरे में खड़ा किया जा रहा है वह किसी से छुपा नहीँ है। इलेक्ट्रानिक मीडिया की नामचीन हस्तियों को लोग गालिया दे रहें हैं। टीवी ऐंकर्स को ट्रॉल किया जा रहा है। जनमानस में घटिया पत्रकारिता को लेकर घृणा है। टीवी ऐंकर्स पर असंसदीय टिप्पणी की जा रहीं है। फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह की करीबी रिया के एक साक्षात्कार को लेकर पत्रकारिता की साख और गिर गई है। लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी उस घटना की जाँच कर रहीं हो फ़िर उस साक्षात्कार की क्या ज़रूरत थीं ? टेलीविजन पर टीआरपी लेने के लिए स्तरहीन डिबेट का हाल किसी से छुपा नहीँ है। इस तरह कि डिबेट जिससे किसी आम आदमी का कोई सरोकार नहीँ है। टीवी पर कुछ निर्धारित एजेंडागत ख़बरें दिखाई जाती हैं। आजकल  रात- दिन रिया और सुशांत छाए हैं। 
देश में कोरोना संक्रमण तेजी से फैल रहा है। मौत की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसके बाद भी अनलॉक जारी है। बुजुर्गों के अलावा अब युवा भी इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ रहें हैं। निजी अस्पताल जिसके पास पैसा नहीँ है उसे भर्ती तक नहीँ ले रहें हैं। देश की विकास दर 40 साल के न्यूनतम तर पर पहुँच चुकी है। विकासदर ऋणात्मक में चली गई है, लेकिन इस पर कोई डिबेट नहीँ हो रहीं है। बेगारी निम्नस्तर पर पहुँच चुकी है। लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हो चुके हैं। सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो रहा है। इस तरह के फैसलों पर अर्थव्यवस्था और रोजगार पर क्या प्रतिकूल और अनुकूल प्रभाव पड़ेगा इस पर चुप्पी है। 
लॉकडाउन में किसान और आम आदमी कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। किसानों को बजार उपलब्ध नहीँ हो रहा है। खेती में लागत घाटा बढ़ रहा है। यूरिया कि किल्लत को लेकर किसान परेशान हैं। बाढ़ से तबाही मची है। तकनीकी शिक्षा में भी लोग बेगार हैं। इस हालात में हम आत्मनिर्भरता की बात करते हैं। लेकिन देश का युवा किस तरह आत्मनिर्भर बनेगा इस पर कोई बहस नहीँ है।   पत्रकारिता अपनी ख़ुद की जिम्मेदारी सम्भले के बजाय दूसरों की जवाबदेही तय करना चाहती है। लेकिन वह ख़ुद अपनी पटरी से कितना नीचे उतर चुकी है इसका उसे ख़ुद अंदाजा नहीँ है। मीडिया न्यायी की भूमिका में है। वह बेतुकी बहसों से यह साबित करना चाहती है कि वह जो कहती और करती है वह सच है। 
पत्रकारिता सनसनी बन गई है। वह दक्षिण और वामपंथ में विभाजित हो चुकी है। वह हिंदू- मुस्लिम में बँट चुकी है। वह देश की बात कम दल की बात अधिक करती है। वह आम की कम खास की अधिक बात करती है। वह सत्ता के बजाय विपक्ष को घेरती है। पढ़े- लिखे लोगों के बीच मीडिया विभाजित हो चुकी है। कौन सा टीवी चैनल और अखबार किस दल का हिमायत करता है लोग बड़े साफगोई से इस सवाल का जबाब दे सकते हैं। जिनकी बात मीडिया में मुद्दा नहीँ बनती वह टीवी और अखबार देखते भी नहीँ हैं। इस तरह का तबका असुविधा को ही  
जीवन की दिनचर्या बना लिया है। उससे कोई मतलब नहीँ है कि कौन सा अखबार और टीवी उसकी बात को वरीयता देता है या नहीँ। 
आजकल टीवी पत्रकारिता में चिल्लाने का नया दौर चला है। हम चिल्लाने से सच नहीँ छुपा सकते हैं। हम चिल्लाकर देश की समस्या का समाधान नहीँ कर सकते हैं। हम चिल्लाकर खबरों की कसौटी पर खरे नहीँ उतर सकते हैं। मीडिया में एक कहावत है कि ख़बरें बोलती हैं। प्रबुध्द पाठक और दर्शक सबकुछ समझता है। उसे चिल्लाना पसंद नहीँ हैं। रिमोट उसके हाथ में उसे वह बदल सकता हैं। लोग खबरों के भूखे हैं लेकिन भड़ास और भाँटगिरी उन्हें पसंद नहीँ। वक्त तेजी से बदल रहा है। पत्रकारिता की लम्बरदारी करने वालों के दिन लदने वाले हैं। 
सोशलमीडिया ने अभिव्यक्ति का नया प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध कराया है। अब पत्रकारिता वर्चुयल मीडिया के पीछे भागती दिखती है। आम आदमी अपनी बात खुले मन से वहां करता है और लाखों तक पहुँचाता है। पत्रकारिता जनविश्वास की कसौटी और आम आदमी के सरोकार से दूर भागती दिखती है। यहीं वजह हैं कि पत्रकार और पत्रकारिता जो कभी आम आदमी के अधिकार की बात करती थीं आज ख़ुद बहस का मसला बनती दिखती है। अब वक्त आ गया है जब पत्रकारिता और पत्रकारों को अपना विश्वास लौटाना होगा। मीडिया संस्थानों ने अगर इस पर गौर नहीँ किया तो भीड़ में उनका टिकना मुश्किल होगा। लोग उसी पर भरोसा करेंगे जो उनकी कसौटी पर खरा उतरेगा।

( उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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