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19 नवम्बर पर विशेष:- दुनिया को प्रेम व भक्ति का संदेश देने वाले महान संत- गुरूनानक


आईपीएन। सिख समाज के महान संत व गुरू गुरूनानक का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 1469 ई में रावी नदी के किनारे स्थित रायभुएकी तलवंडी मंे हुआ था जो अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। अब यह पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है। इनके पिता मेहता कालू गांव के पटवारी थे और माता का नाम तृप्ता देवी था। इनकी एक बहन भी थी जिनका नाम नानकी था। बचपन से ही नानक में प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखलायी देने पड़ गये थे।बचपन से ही ये सासांरिक चीजों के प्रति उदासीन रहते थे। पढ़ाई-लिखाई में इनका मन कभी नहीं लगा। सात वर्ष की आयु में गांव के स्कूल में जब अध्यापक पंडित गोपालदास ने पाठ का आरंभ अक्षरमाला से किया लेकिन अध्यापक उस समय दंग रह गये जब उन्होंने गुरू से अक्षरमाला का अर्थ पूछा। अध्यापक की आलोचना करने पर गुरूनानक ने हर एक अक्षर का अर्थ लिख दिया। गुरूनानक के द्वारा दिया गया यह पहला दैविक संदेश था। लज्जित अध्यापक ने गुरूनानक के पैर पकड़ लिये। 

      कुछ समय बाद उन्होंने स्कूल जाना ही छोड़ दिया। अध्यापक स्वयं गुरूनानक को घर छोड़ने आये। बचपन से ही कई चमत्कारिक घटनाएं घटित होने लग गयी जिससे गांव के लोग इन्हें दिव्यश्शक्ति मानने लगे। बचपन से ही इनके प्रति श्रद्धा रखने वाले लोगों मंे इनकी बहन नानकी गांव के शासक प्रमुख थे। गुरूनानक का विवाह कहा जाता है कि 14 से 18 वर्ष के बीच गुरूदासपुर जिले के बटाला के निवासी भाईमुला की पुत्री सुलक्खनी के साथ हुआ। उनकी पत्नी ने दो पुत्रों को जनम दिय। लेकिन गुरू पारिवारिक मामलों में पड़ने वाले व्यक्ति नहीं थे। उनके पिता को भी जल्द ही समझ में आ गया कि विवाह के कारण भी गुरू अपने लक्ष्य से पथभ्रष्ट नहीं हुए थे। वे शीघ्र ही अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर अपने चार शिष्यों मरदाना,लहना, नाला और रामदास को लेकर यात्रा के लिए निकल पड़े़। 
  गुरूनानक देव ने संसार के दुखों को घृणा, झूठ और छल-कपट से परे होकर देखा इसलिए वे इस धरती पर मानवता के नवीनीकरण के लिए निकल पड़े। वे सच्चाई की मशाल लिए, अलौकिक प्यार, मानवता की शांति और खुशी के लिए चल पड़े। वे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम चारों तरफ गये और हिंदू, मुसलमान, बौद्धों, जैनियों, सूफियों, योगियों और सिद्धों के विभिन्न केद्रों का भ्रमण किया। उन्होंने अपने मुसलमान सहयोगी मर्दाना जो कि एक भाट था के साथ पैदल यात्रा की। उनकी यात्राओं को पंजाबी मेें उदासियां कहा जाता है। इन यात्राआंे मंे आठ वर्ष बीताने के बाद घर वापस लौटे। 
      गुरूनानक एक प्रकार से सर्वेश्वरवादी थे। मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। रूढ़ियों और कुप्रथा के तीखे व प्रबल विरोधी थे। कहा जाता है कि बचपन में ही उन्होनें जनेऊ का कड़ा विरोध किया था और उसे तोड़कर फेंक भी दिया था। उनके दर्शन मंे वैराग्य तो है ही साथ ही उन्होनें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक स्थितियों पर भी नजर डाली है। संत साहित्य में नानक ने नारी को उच्च स्थान दिया है। इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है। हिंदू, मुसलमान दोनों पर ही इनके उपदेशों का प्रभाव पड़ता था। कुछ लोगों ने ईर्ष्या वश उनकी शिकायत तत्कालीन शासक इब्राहीम लोधी से कर दी जिसके कारण कई दिनों तक कैद में भी रहे। कुछ समय बाद जब पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम लोधी बाबर के साथ लड़ाई में पराजित हुआ तब कहीं जाकर गुरूनानक कैद से मुक्त हो पाये। जीवन के अंतिम दिनों में इनकी ख्याति बढ़ती चली गयी तथा विचारों में भी परिवर्तन हुआ। उन्होनें करतारपुर नामक एक नगर भी बसाया था। अतिंम समय में हिंदू और मुसलमान शिष्य अपने धार्मिक रीति- रिवाजों के साथ संस्कार करना चाहते थे। इस विवाद का अंत भी गुरूनानक ने स्वयं ही करवाया। उनकी याद मंे सिखों ने एक गुरूद्वारा और मुसलमानों ने मकबरा बनवाया लेकिन रावी नदी मंे अचानक बाढ़ आयी और दोनों को बहा ले गयी। संभवतः ईश्वर को यहां पर भी भेदभाव पसंद नहीं था। एक प्रकार से गुरूनानक के धर्म ने सभी प्रकार की अर्थहीन रीतियों तथा संस्कारों को अस्वीकार किया। गुरूनानक के उपदेश आज के वर्तमान समय केे लिए भी बेहद उपयोगी हैं। 
केवल अपने दैवीय वचनों से उन्होंने उपदेश दिया कि केवल अद्वितीय परमात्मा की ही पूजा होनी चाहिये। कोई भी धर्म जो अपने मूल्यों की रक्षा नहीं करता वह अपने निम्न स्तर के विकास को दर्शाता है और आने वाले समय में अपना अस्तित्व खो देता है। उनके संदेश का मुख्य तत्व इस प्रकार था - ईश्वर एक है, ईश्वर ही प्रेम है, वह मंदिर में है, मस्जिद में है और चारदीवारी के बाहर भी वह विद्यमान है। ईश्वर की दृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। वे सब एक ही प्रकार जन्म लेते हैं और एक ही प्रकार अंतकाल को भी प्राप्त होते हैं। ईश्वर भक्ति प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। उसमंे जाति-पंथ, रंगभेद की कोई भावना नहीं है। 40वें वर्ष में ही उन्हें सतगुरू के रूप में मान्यता मिल गयी। उनके अनुयायी सिख कहलाये। 
उनके उपदेशों के संकलन को जपुजी साहब कहा जाता है। प्रसिद्ध गुरू ग्रंथसाहिब में भी उनके उपदेश संदेश हैं।सभी सिख उन्हें पूज्य मानते हैं और भक्तिभाव से इनकी पूजा करते हैं। 
कवि ननिहाल सिंह ने लिखा है कि, “वे पवित्रता की मूर्ति थे उन्होंने पवित्रता की शिक्षा दी। वे प्रेम की मूर्ति थे उन्होंने प्रेम की शिक्षा दी। वे नम्रता की मूर्ति थे, नम्रता की शिक्षा दी। वे शंति और न्याय के दूत थे । समानता और शुद्धता के अवतार थे। प्रेम और भक्ति का उन्होंने उपदेश दिया। गुरूनानक जी ने संदेश दिया कि वही सर्वश्रेष्ठ ईश्वर सब का परमेश्वर है।” 

( उपर्युक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो। )

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